कागज़ के फूल










काग़ज़ के फ़ूल

बसंत के फ़ूल महक गये

सावन की चिड़िया चहक गयी

खिलने की अब बाट जोह रहे

हैं तो बस कागज़ के फूल।




पंखुड़ियों को मर्म का भेद नहीं

बेज़ान कली को खेद नहीं,

सुगंध अब जो फ़ैल रही,

औकात है तो बस इसी की

और बात जो है, बस इसी की।



धूल धूसरित जो हो रहे थे तब

और बिख़र रही महक जूही की अब

कल्पनाओं कि खाद मांग कर,

उमंगों भरी जान डालकर।



सहेज रहा हूं कोस रहा हूँ

हर पल मैं अपने अनुकूल,

हैं तो बस कागज़ के फ़ूल।



- हरीश बेंजवाल




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