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Showing posts from 2014

जननी

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 जननी  आँचल के छाँव से दूर और भूली हुई लोरियों से  ना कभी का वास्ता प्रतिबिम्भ कल्पनाओं से भी परे ना तेरे वात्सल्य प्रेम की सुगंध से है जननी तू मेरी अनेक अभेद मर्म से। कई बसंत संग जो बीत गए केश रंग भी तो उड़ गये दरारों से पट  चुका अब तेरा ये बेजान चेहरा और नसों का निरंतर सिकुड़ना फिर भी 'खोखली' मुस्कान में तेरी आज भी निश्छल खरा वही सुकून है तेरी कामनाओं में मेरी जीत है मैं  तो  बस एक उम्मीद हूँ तेरी तेरा ये 'लालमणि'   Far from the comfort of your love and from your forgettable lullabies distant from the imagination and from your unconditional affection you are my mother - a synonym of hardships several years have gone so fast even your hair now seems to be dull with a face full of destiny lines old and calm your veins now seems shrunk then again your smile have not lost the charm to console your child it's same as it was before, sweet and predictable your blessings always makes me win as am just a hope for you your son '

A Beautiful Mind

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From the broken pieces of our past And till the time I breath my last You will be remembered, every moment My sweet angel, sweet lovable sweetheart From the embraces to the kisses of souls We have moved together From the disagreements and your complains We have rised together And see.. I don't speak that much in your silence But the moment says to clasp firmly Because we are meant to be together, forever.

अग्नि परीक्षा

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अग्नि परीक्षा   मान भी लें वक़्त तुम्हारे साथ नहीं और पहले से हालात नहीं पर जो तुम थमकर रुक गए दफ़न 'उम्मीद' वहीं तुम जम गए। हर बात पर जो तुम झुक रहे और कहने से तुम रुक रहे यह बात है तुम्हारी दीक्षा चुनौतियों की है अग्निपरीक्षा जो खिल गए तो बसंत हो नीरस पतझड़ का अंत हो। वहम दिल का जो फ़ितूर है लक्ष्य बस वहीं तक का दूर है सीढ़ियाँ ले संग जो अपना सगा है उसी ने तो दिल को तेरे ठगा है। दहकता तेरा रोष सही और भभकती तपिश कहे यही एकल तू अजेय फ़ौज है असंख्य लहरों की मौज है टीस भरे उन्माद का और चोटिल तेरे हर ज़ज्बात का होती रहेगी यूं अग्निपरीक्षा।। - हरीश बेंजवाल

कागज़ के फूल

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काग़ज़ के फ़ूल बसंत के फ़ूल महक गये सावन की चिड़िया चहक गयी खिलने की अब बाट जोह रहे हैं तो बस कागज़ के फूल। पंखुड़ियों को मर्म का भेद नहीं बेज़ान कली को खेद नहीं, सुगंध अब जो फ़ैल रही, औकात है तो बस इसी की और बात जो है, बस इसी की। धूल धूसरित जो हो रहे थे तब और बिख़र रही महक जूही की अब कल्पनाओं कि खाद मांग कर, उमंगों भरी जान डालकर। सहेज रहा हूं कोस रहा हूँ हर पल मैं अपने अनुकूल, हैं तो बस कागज़ के फ़ूल। - हरीश बेंजवाल