मन की बात


भाग १

दिल जिसे कह ना सका 

अगर बात करें तो फ़ालतू ही लगेगी। मगर बात तो थी। दस साल पहले की । मुझे तो ऐतिहासिक जान पड़ रही है । जी मैं उस दौर की बात कर रहा हूँ जब बॉलीवुड को गोविन्दा की चटख और अटपटे परिधानों से निजात मिली । ज़्यादा घुमाना अब ठीक ना रहेगा । आज से दस साल पहले मैंने कॉलेज यानी महाविद्यालय में दाख़िला पाया । स्वाभाविक है जवान था स्फूर्ति थी, मासूमियत और ख़ुद की अहमियत थी । मैंने कॉलेज में दाख़िला लिया । कॉलेज कर्मों के अनुरूप मिला । दक्षिण भारत के इष्ट देव श्री वेंकटेश्वर के नाम से। प्यार से इसे 'वेंकि' पुचकारते थे और हैं ।

मुझे उस ज़माने ने बहुत से भौतिक सुख सुविधाओं से अलग रखा। फर्ज़ के लिए snapdragon ५१० चिप्सेट, ५ इंच hd, २ gb रैम युक्त फ़ोन, स्टाइलिश कपड़े, फ़लाँ फ़लाँ । कुल मिलाकर स्कूल बदला लेकिन जीवन kucchu की तरह रह गया । अंकल वाले कपड़ों जैसा ड्रेसिंग सेन्स, आनंद कम्पनी उद्योग विहार, पीरगढ़ी के वो जूते और बारहवीं कक्षा से जैसे तैसे बचा हुआ वो बैग। इनका साथ कॉलेज में भी ना छूट सका।

ख़ैर!

कॉलेज के जीवन में दो रोचक प्रसंग हुए और दोनों हास्यास्पद। ज्ञात रहे प्रेम प्रसंग से ज़िंदगी अनिभिज्ञ रही । सीन - कॉलेज कॉरिडर, क्लास रूम से बाहर । मैं दोस्त से बतिया रहा था की जीवन स्कूल में कितना सरल था । यहाँ कॉलेज में कोई पूछता ही नहीं। वो दोस्त भी बेचार्गी में हूँ हूँ करने को बाधित था। करे तो क्या करे? कौन उसे सुनेगा? आख़िर कुंठा तो दोनों की ही थी। सो फ़र्ज़ भी दोनों का बनता था कि सुख दुःख बाँटें। हमें क्लास में कोई पहचानता नहीं था । हमारा कोई वजूद ना था । हमारा आना ना आने के बराबर था । आगे की पंक्ति में ना बैठना स्कूल से ही सीखा था । क़ुर्बान थी वो कुर्सियाँ मेधावी छात्रों के लिए । पीछे बैठकर बस ये देखना का मन करता था की प्रफ़ेसर हमें ना देखे। 

फिर भटक गया!

मैं दोस्त से बतिया रहा था की - एक मधुर कोमल आवाज़ ने मेरी रूह में जान भर दी । देखा। लड़की थी । ख़ूबसूरत। ज़िंदगी कामयाब लगने लगी। साथ पढ़कर भी अनजान थे ।

लड़की की आवाज़ - Hi! My name is X ( पहचान की पुष्टि ना हो) you are also in (Hons.) ? If sir come could you please give me a miss call?

मन की आवाज़ - (same timing) क्या ?? मिस कॉल? मोबाइल नहीं है :-( लड़की है सामने बोल दे .....

असली आवाज़ - Hi! Actually I would have (बस यहीं तक फ़्लूयंट आती है English).....लेकिन मेरे पास मोबाइल नहीं है :-( if you don't mind (फिर English में ) just give me your mobile number I will call you from local PCO near the canteen.


Ha ha ha ......


उसके बाद फिर दुबारा बात नहीं हुई ।



भाग २

हनुमान दर्शन 

कॉलेज शुरू हुआ तो दोस्तों से टिप्स भी मिलने लगी की कैसे पैसे बचाएँ । मर्द होने की क़वायद शुरू हो गयी थी । एक नया जुमला मिला स्टाफ़ बोलने का । कॉलेज स्टाफ़ । इसका इस्तेमाल बस में टिकट ना लेने के लिए किया जाता था । वर्तमान में इसकी स्थिति अज्ञात है। फ़र्ज़ी अकड़ के साथ टिकट लेने से सीधा सीधा इनकार कर देना ही स्टाफ़ था । illegal। इसमें दो परिस्थिति बनती थी या तो कंडक्टर लड़ झगड़ के मान जाते थे या फिर मार पीट की नौबत आती थी । पलड़ा ज़्यादातर स्टाफ़ थोपने वाले का भारी हो जाता । मेरी कहानी इसके ठीक विपरीत थी । मैं शरीर से औसत था ।  मेरी क़ुदरती आवाज़ कोमल थी । दबंगई कोसों दूर थी । बचपन में भैंस के घी का सेवन ज़्यादा ना कर पाना शायद एक वजह थी । क़द काठी भी भीड़ में ओझल होने लायक थी । 


सीधा सीन पे आता हूँ
Location - Bus Terminal, Uttam Nagar 
Day - मंगलवार
Time - 7:40 am approximate 
 
नज़र उठायी और पढ़ा - 724 Nehru Place via Dhaula Kuan
Blue line bus 

अंदर गया । भीड़ ज़्यादा नहीं थी । बाँयी ओर देखा एक तगड़ा आदमी अगरबत्ती जला रहा था । शायद कंडक्टर था ।आँखें बंद करके मन ही मन बुदबुदा रहा था की ईश्वर दिन अच्छा जाए, बरकत हो । जय माँ अम्बे। साईं नाथ। ठीक ऊपर एक लंगोट बाबा की तस्वीर थी। कान पे हाथ लगा के उसने 
टिकट लेने की कार्यवाही शुरू कर दी । मैंने सबसे आखिरी पंक्ति वाली सीट को उपयुक्त पाया । दिन मंगलवार था । आज पापा की बीस साल पुरानी स्वेटर पहन के आया था । बॉब्लिंग नहीं हुई । शीशा देखा था तो जंच रहा था । बाक़ी भ्रम था ।  इस बस में मैं केवल दस रुपए बचाने के लिए बैठा था । दिमाग़ में काफ़ी सीन पहले ही इमैजिन कर लिए थे । 

आख़िर कंडक्टर पहुँच ही गया मेरे पास 

डरना नहीं ..... ना 

हाँ भाई टिकट बोलिय्ये?

स्टाफ़ है 

स्टाफ़????? के बात का स्टाफ़ से ? 

कालिज का 

कौन से कॉलेज का ?? के में पड़े से ? 

अम म्म हम्म..... 

आवाज़ नहीं निकली । दबंगई नहीं दिखा पाया 


साढ़े मार मार के भूत बना दूँगा निकड यहाँ से ।

इससे पहले मैं कुछ हरकत करता मेरी पापा की स्वेटर कब खिंच गयी पता ना चला । स्वप्न सा लगने लगा । आख़िरी सीट से मैं कब लंगोट बाबा की तस्वीर के पास आ गया पता ही ना चला।

साढ़े हनुमान नाम सै

मार मार के चाम निकाड दूँगा स्टाफ़ की बकवास करि ते समझया??

बदमाश बन्ने से । दुबारा ना दिख्ये। भाज जा।

पूरी बस में सन्नाटा पसर गया । कॉलेज की लड़कियों ने earphones और मोबाइल phones बंद कर दिए की कौन है ये कंजर? जो दस रुपए के लिए स्टाफ़ की दुहाई दे रहा है ? मैं शर्मसार हो चुका था । हनुमान की भक्ति और उसकी कलाइयों की शक्ति मुझे झकझोर चुकी थी । अब तक पापा की स्वेटर सचमुच पापा के लायक दिखने लगी । उसका खिंचा हुआ बाजु भी मेरी आज बेज़्ज़ती कर रहा था। 

यकायक एक मौक़ा परस्त अवतरित हुआ और मेरे हाथ में उसने दस रुपए थमाए और बोला भाई ये ले दस रुपए टिकट ले ले औरों का समय बर्बाद ना कर । ऐसी on the स्पॉट परीक्षा के लिए मैं तैयार ना था । मन की आवाज़ और मेरा प्रतिबिम्ब ने मुझे झटपट सीन से आउट होने को कहा । लज्जित और असहाय मैं दूसरी तरफ़ चला गया । सामने देखा दिल्ली परिवहन की बस खड़ी है । मैंने प्रवेश किया वहाँ कंडक्टर के हाथ में दस रुपए थमाए और एकाएक आत्मविश्वास के साथ बोला 

धौला कुआँ ।











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