रात का मुसाफ़िर

रात का मुसाफ़िर 


सर्द हवा की  चुभन से
बढ़ रहे हौसले मेरे,
स्वप्न है  या नींद में
एकांत में कभी भीड़ में
चल रहा हुँ  इस उम्मीद में
कि मुसाफिर हुँ  रात का।

पिछड़ गया रफ़्तार से
निकल गया तकरार से
और मुक्त हुँ  भीख मांगती निगाओं की
अपेक्षाओं के बौछार से
चल रहा हुँ  इस उम्मीद में
कि मुसाफिर हुँ ज़ज्बात  का।

- हरीश बेंजवा





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